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बगलामुखी कवच (Durga Bagalamukhi Kavach)

ध्यान:- भगवती बगला सुधा-समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नवेदी पर रत्नमय सिंहासन पर विराजती हैं। पीतवर्णा होने के कारण ये पीत रंग के ही वस्त्र, आभूषण व माला धारण किये हुए हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं का नाश करने वाली और समष्टि रूप में परम ईश्वर की सहांर इच्छा की अधिस्ठात्री शक्ति बगलामुखी है।

माता बगलामुखी की उपासना से शत्रुनाश, वाक सिद्धि, वाद विवाद में विजय प्राप्त होती है। सभी शत्रुओं का शमन करने वाली तथा मुकदमों में विजय दिलाने वाली होती है इनकी उपासना से भक्त का जीवन हर प्रकार की बाधा से मुक्त हो जाता है। यह मां बगलामुखी स्तंभन शक्ति की अधिष्ठात्री हैं। माँ बगलामुखी की साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है। बगलामुखी का मंत्र साधकों की हर मनोकामनां पूर्णं करने वाला है। देवी के साधक को कभी भी धन का अभाव नहीं होता। भगवती की कृपा से वह सभी प्रकार की धन सम्पत्ति का स्वामी बन जाता है। साधना में पीत वस्त्र धारण करना चाहिए एवं पीत वस्त्र का ही आसन लेना चाहिए। आराधना में पूजा की सभी वस्तुएं पीले रंग की होनी चाहिए। पीले फूल और नारियल चढाने से देवी प्रसन्न होतीं हैं। बगलामुखी देवी के मन्त्रों से दुखों का नाश होता है। आराधना खुले आकश के नीचे नहीं करनी चाहिए। एकांत कक्ष में पुजा पाठ करना लाभकारी रहता हैं। साधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। डरपोक लोगों को साधना नहीं करनी चाहिए। बगलामुखी मंत्र के जाप से पूर्व बगलामुखी कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए। 

ॐ सौवर्णासन-संस्थितां त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्। 
हेमाभांगरुचिं शशांक-मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम्।।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्ररसनाः संबिभ्रतीं भूषणैः। 
व्याप्तांगीं बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिन्तयेत्।।

दाए हाथ में जल लेकर विनियोग करें।
ॐ अस्य श्री बगलामुखी ब्रह्मास्त्र मंत्र कवचस्य भैरव ऋषिः, विराट छ्ंदः, श्री बगलामुखी देव्य, क्लीं बीजम्, ऐं शक्तिः, श्रीं कीलकं, मम मनोभिलाषिते कार्य सिद्धयै विनियोगः।

न्यास
भैरव ऋषयै नमः शिरसि। (सिर पर दाहिने हाथ से स्पर्श करे)
विराट छन्दसे नमः मुखे। (मुंह को स्पर्श करें)
बगलामुखी देव्य नमः ह्रदि। (दिल को स्पर्श करें)
ऐं शक्तये नमः गुह्ये। (गुह्यांग को दुर से स्पर्श करें)
 श्रीं कीलकाय नमः सर्वांगे। (सभी अंगों को स्पर्श करे लेकिन पैरो आदि को नहीं)

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः। (दोनों हाथों के अंगुठो को मिलाये)
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। (दोनों हाथों की तर्जनी अंगुलियों को मिलाए।)
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः। (दोनों हाथों की मध्यमां अंगुलियों को मिलाए।)
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः। (दोनों अनामिका अंगुलियों को मिलाए।)
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। (दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों को मिलाए।)
ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः। (दोनों हथेलियों को मिलाए फिर उल्टी हथेली मिलाए)

ॐ ह्रां ह्रदयाय नमः। (ह्रदय को दाहिने हाथ से स्पर्श करें।)
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। (सिर को स्पर्श करें।)
ॐ ह्रूं शिखायै वषट। (शिखा या चोटी को स्पर्श करें।)
ॐ ह्रैं कवचाय हुम। (दाएं हाथ से बाएं कन्धे और बाएं हाथ से दाएं कन्धे को एक बार मे स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट। (तीनों नेत्रों को दाएं हाथ की अंगुलियों से एक साथ स्पर्श करें)
ॐ ह्रः अस्त्राय फट
(सिर के पीछे से तीन बार चुटकी बजाते हुए कलोक वाईज दाए हाथ को तीन बार घुमाए फिर बाएं हाथ की हथेली पर दाएं हाथ की तर्जनी और मध्यमा से तीन बार ताली बजाए)

ॐ ह्रीं ऐं श्रीं क्लीं श्री बगलानने मम रिपून्नाशय नाशय मामैश्वर्याणि देहि देहि,
शीघ्रं मनोवाण्छितं कार्यं साधय साधय ह्रीं स्वाहा।

कवच-पाठ
शिरो मे पातु ॐ ह्रीं ऐं श्रीं क्लीं पातु ललाटकम्। सम्बोधन-पदं पातु नेत्रे श्रीबगलानने।। (१)
श्रुतौ मम रिपुं पातु नासिकां नाशयद्वयम्। पातु गण्डौ सदा मामैश्वर्याण्यन्तं तु मस्तकम्।। (२)
देहि द्वन्द्वं सदा जिह्वां पातु शीघ्रं वचो मम। कण्ठदेशं मनः पातु वाञ्छितं बाहुमूलकम्।। (३)
कार्यं साधयद्वन्द्वं तु करौ पातु सदा मम। मायायुक्ता तथा स्वाहा, हृदयं पातु सर्वदा।। (४)
अष्टाधिक चत्वारिंश दण्डाढया बगलामुखी। रक्षां करोतु सर्वत्र गृहेऽरण्ये सदा मम।। (५)
ब्रह्मास्त्राख्यो मनुः पातु सर्वांगे सर्व सन्धिषु। मन्त्रराजः सदा रक्षां करोतु मम सर्वदा।। (६)
ॐ ह्रीं पातु नाभिदेशं कटिं मे बगलाऽवतु। मुखिवर्णद्वयं पातु लिंग मे मुष्क-युग्मकम्।। (७)
जानुनी सर्वदुष्टानां पातु मे वर्णपञ्चकम्। वाचं मुखं तथा पादं षड्वर्णाः परमेश्वरी।। (८)
जंघायुग्मे सदा पातु बगला रिपुमोहिनी। स्तम्भयेति पदं पृष्ठं पातु वर्णत्रयं मम।। (९)
जिह्वा वर्णद्वयं पातु गुल्फौ मे कीलयेति च। पादोर्ध्व सर्वदा पातु बुद्धिं पादतले मम।। (१०)
विनाशय पदं पातु पादां गुल्योर्न खानि मे। ह्रीं बीजं सर्वदा पातु बुद्धिन्द्रियवचांसि मे।। (११)
सर्वांगं प्रणवः पातु स्वाहा रोमाणि मेऽवतु। ब्राह्मी पूर्वदले पातु चाग्नेय्यां विष्णुवल्लभा।। (१२)
माहेशी दक्षिणे पातु चामुण्डा राक्षसेऽवतु। कौमारी पश्चिमे पातु वायव्ये चापराजिता।। (१३)
वाराही चोत्तरे पातु नारसिंही शिवेऽवतु। ऊर्ध्वं पातु महालक्ष्मीः पाताले शारदाऽवतु।। (१४)
इत्यष्टौ शक्तयः पान्तु सायुधाश्च सवाहनाः। राजद्वारे महादुर्गे पातु मां गणनायकः।। (१५)
श्मशाने जलमध्ये च भैरवश्च सदाऽवतु। द्विभुजा रक्तवसनाः सर्वाभरणभूषिताः।। (१६)
योगिन्यः सर्वदा पान्तु महारण्ये सदा मम। इति ते कथितं देवि कवचं परमाद् भुतम्।। (१७)

फल-श्रुति
श्रीविश्व विजयं नाम कीर्ति-श्रीविजय-प्रदम्। अपुत्रो लभते पुत्रं धीरं शूरं शतायुषम्।। (१८)
निर्धनो धनमाप्नोति कवचस्यास्य पाठतः। जपित्वा मन्त्रराजं तु ध्यात्वा श्रीबगलामुखीम्।। (१९)
पठेदिदं हि कवचं निशायां नियमात् तु यः। यद् यत् कामयते कामं साध्यासाध्ये महीतले।। (२०)
तत् यत् काममवाप्नोति सप्तरात्रेण शंकरि। गुरुं ध्यात्वा सुरां पीत्वा रात्रौ शक्ति-समन्वितः।। (२१)
कवचं यः पठेद् देवि तस्य आसाध्यं न किञ्चन। यं ध्यात्वा प्रजपेन् मंत्रं सहस्रं कवचं पठेत्।। (२२)
त्रिरात्रेण वशं याति मृत्योः तन्नात्र संशयः। लिखित्वा प्रतिमां शत्रोः सतालेन हरिद्रया।। (२३)
लिखित्वा हृदि तन्नाम तं ध्यात्वा प्रजपेन् मनुम्। एकविंशद् दिनं यावत् प्रत्यहं च सहस्रकम्।। (२४)
जपत्वा पठेत् तु कवचं चतुर् विं शतिवारकम्। संस्तम्भं जायते शत्रोर्नात्र कार्या विचारणा।। (२५)
विवादे विजयं तस्य संग्रामे जयमाप्नुयात्। श्मशाने च भयं नास्ति कवचस्य प्रभावतः।। (२६)
नवनीतं चाभिमन्त्र्य स्त्रीणां सद्यान् महेश्वरि। वन्ध्यायां जायते पुत्रो विद्याबल-समन्वितः।। (२७)
श्मशानांगार मादाय भौमे रात्रौ शनावथ। पादोद केन स्पृष्ट्वा च लिखेत् लोह शलाकया।। (२८)
भूमौ शत्रोः स्वरुपं च हृदि नाम समालिखेत्। हस्तं तद्धदये दत्वा कवचं तिथिवारकम्।। (२९)
ध्यात्वा जपेन् मन्त्रराजं नवरात्रं प्रयत्नतः। म्रियते ज्वरदाहेन दशमेऽह्नि न संशयः।। (३०)
भूर्जपत्रेष्विदं स्तोत्रम् अष्टगन्धेन संलिखेत्। धारयेद् दक्षिणे बाहौ नारी वामभुजे तथा।। (३१)
संग्रामे जयमाप्नोति नारी पुत्रवती भवेत्। ब्रह्मास्त्रदीनि शस्त्राणि नैव कृन्तन्ति तं जनम्।। (३२)
सम्पूज्य कवचं नित्यं पूजायाः फलमालभेत्। वृहस्पतिसमो वापि विभवे धनदोपमः।। (३३)
काम तुल्यश्च नारीणां शत्रूणां च यमोपमः। कवितालहरी तस्य भवेद् गंगा-प्रवाहवत्।। (३४)
गद्य-पद्य-मयी वाणी भवेद् देवी-प्रसादतः। एकादशशतं यावत् पुरश्चरण मुच्यते।। (३५)
पुरश्चर्या-विहीनं तु न चेदं फलदायकम्। न देयं परशीष्येभ्यो दुष्टेभ्यश्च विशेषतः।। (३६)
देयं शिष्याय भक्ताय पञ्चत्वं चान्यथाऽऽप्नुयात्। इदं कवचमज्ञात्वा भजेद् यो बगलामुखीम्। (३७)
शतकोटिं जपित्वा तु तस्य सिद्धिर्न जायते। दाराढ्यो मनुजोऽस्य लक्षजपतः प्राप्नोति सिद्धिं परां ।।
विद्यां श्रीविजयं तथा सुनियतं धीरं च वीरं वरम्।
ब्रह्मास्त्राख्य मनुं विलिख्य नितरां भूर्जेष्टगन्धेन वै, धृत्वा राजपुरं ब्रजन्ति खलु ये दासोऽस्ति तेषां नृपः।। (३८)
श्री विश्वसारोद्धार तन्त्रे पार्वतीश्वर संवादे बगलामुखी कवचम्।।

यही कवच हैं। 

1 comment:

  1. JAI JAGAT JANANI...AMOOGH AUR DURLABH KAWACH

    SHREE GURUBHYO NAMAH

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