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श्री हरि नारायण (Hari Narayana)

श्री हरि नारायण क्षीर सागर में शेषनाग की शैय्या पर शयन करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि समस्त ब्रह्मांड उन्हीं में बसता है। यह जगत उन्हीं में है। उनकी भक्ति के लिए भक्तों को एक जौहरी की तरह आचरण करना श्रेष्ठ बताया गया है, तभी वह श्री नारायण तत्व का अनुभव भी कर पाएंगे। वह जिस शेषनाग पर शयन करते हैं, वह हमारा मेरुदंड कहा जाता है, जिसमें तीन नाड़ियां भी हैं।


भगवान की आराधना करने वाला जातक संयम-परायण, योगी, प्राणायाम द्वारा सुष्मना नाड़ी के प्रवाह को संचालित कर कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर सहस्रार चक्र का भेदन करके अमृतत्व की प्राप्ति करता है। उसका रोम-रोम सच्चिदानंद की धारा में सराबोर हो जाता है। उसके शरीर के हिस्से से शांति की निर्झर धारा बहने लगती है। यही भगवान के सहस्रफल शेषनाग का निहितार्थ भी है। अंतर्मुखी साधक भी विषमता रूपी सर्प की शय्या पर आत्मानंद में सराबोर होकर परम शक्ति को प्राप्त करते हैं। इनके चरणों में देवी लक्ष्मी हैं। शास्त्रों के अनुसार श्रीनारायण कहते हैं, ‘यदि भक्त को श्री की कामना है, तो वह अपनी वृत्तियां अंतर्मुखी कर मुक्त सगुण साकार या निराकार की ओर लगाओ। संयमी बनो, शांत भगवद् परायण बनने से आंतरिक शक्ति एवं श्री की प्राप्ति सुलभ होगी। 

शांत मन से देवी की आराधना करते हुए उद्यमपरायण जीवन द्वारा ही भौतिक समृद्धि की प्राप्ति संभव हो पाएगी।’ भगवान के चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म का भी अलग-अलग संदेश मिलता है। भगवान की नाभि कमल के ऊपर स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं। भगवान श्रीविष्णु का ध्यान स्मरण ॐ नमो नारायणाय नम: मंत्र से करने पर उनकी कृपा मिलती है। या फिर प्रतिदिन यह विष्णु ध्यान मंत्र का जप करना भी लाभकारी है 

शांताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभम् सुरेशम्। विश्वाधारम् गगनसदृशम् मेघवर्णम् शुभांगम् ॥
लक्ष्मीकांतम् कमलनयनम् योगिभिर्ध्यान गम्यम् । वंदे विष्णुम् भवभयहरम् सर्वलोकैकनाथम्॥

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