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वक्री ग्रह शुभ फल देते हैं


सौर सिद्धांत के अनुसार ग्रह को अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण करते हुए विभिन्न प्रकार की गति मिलती है। मसलन वक्रा, अति वक्रा, शीघ्रा, शीघ्रा-तरा, मंद, मंतरा, सम, कुटिल आदि। यहां वक्र गति का अर्थ है, ग्रहों का अपने भ्रमण पथ पर उल्टी गति से चलना। पर वास्तव में ग्रह उल्टे चलते नहीं हैं। पृथ्वी की गति तथा ग्रह की गति के भेद एवं उस ग्रह की पृथ्वी से विशेष दूरी पर स्थित होने की वजह से ही वह वक्री प्रतीत होता है। वैसे नौ ग्रहों में सूर्य और चंद्र कभी वक्री नहीं होते। राहु तथा केतु सदा वक्री चलते हैं।

  • अगर वक्री ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हो, तो अपनी नीच राशि में होने का फल देता है। पर नीच राशि में वक्री ग्रह अपनी उच्च राशि का शुभ फल देता है।
  • यदि वक्री ग्रह के साथ कोई ग्रह स्थित हो, तो उसके सानिध्य में वह और बलवान हो जाता है। इस वजह से जातक को शुभ अथवा अशुभ फल मिलता है।
  • यदि अशुभ ग्रह अशुभ भाव में वक्री हो, तो अशुभता में वृद्धि हो जाती है। परंतु शुभ भाव में अशुभता में कमी आ जाती है।
  • यदि कुंडली में लग्नेश केंद्रस्थ होकर वक्री हो जाए, तो यह अत्यंत शुभकारी होता है।
  • इसी प्रकार वक्री ग्रह का संबंध यदि सप्तम भाव से है, तो जातक के विवाह में विलंब होता है।
  • अगर वक्री ग्रह का संबंध केंद्र या त्रिकोण से हो अथवा त्रिकोण, केंद्र का स्वामी वक्री होकर शुभ भाव में पहुंच जाए, तो यह जातक की कुंडली में अति शुभ फल का संकेत है।

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